वो चिट्ठी शिकायत से शुरू होती थी
"तू कितना लापरवाह हो गया
ख़त का जवाब भी नहीं देता"
वो चिट्ठी चिंताओं से भरी होती थी
"गर्मी में बाहर मत निकलना
तुझे लू जल्दी लगती है"
वो चिट्ठी नसीहत से ख़त्म होती थी
"परीक्षाएं आ रही हैं, चिंता मत करना
खूब मन लगाकर पढ़ाई करना
बादाम भेज रही हूँ, थोड़ी खा लेना"
कागज़ के हर कोने में
नसीहतें लिखी होती थीं
हाशिए पर फ़िक्र के दस्तख़त थे
अब माँ के पास हूँ मैं
रात में देर से लौटता हूँ
तो कहने लगती है
"कितनी देर कर दी तूने
खाना ठंडा हो गया
गर्म कर दूं क्या"
©दामोदर व्यास