Dec 29, 2007

बेचारा चाँद


इक पूरा चाँद, पूनम कि रात निकला ...
सोचा कि खूब खिलेगा आज खुद कि सूरत पर...

मगर पागल था ...
ठंडी आग वाला चाँद ...
चेहरे पे दाग वाला चाँद

उसी रात को ही तो मिली थी, तुम भी मुझसे ....
बरसों पुराने इंतज़ार के साथ ....

शर्म से बोझल आंखो को, 
कुछ कहने कि चाहत थी, 
कम्पकपाते होंठो को देखकर....
भला कोई कैसे... कुछ न भूलता....

आवारा चाँद भी रात
 खुद को भूल बैठा....
तूम जो आयी थी बरसों बाद ....
उस रात... छत पर....

रोज़ मत आना वरना....
पागल चाँद
खुद को बरबाद ना कर बैठे कहीं ....

Dec 21, 2007

एक नज्म.......


जो भी सामने हैं, ध्यान से पढ़ना...
ये कुछ पंक्तियाँ नहीं... मेरी रूह हैं....

ज़रा संभल कर... थोड़ी नाजुक हैं..
तुम्हे तन्हा पाकर आई हैं...

ध्यान से, ज़रा...आँखे खोलकर...
ये कविता अब शक्ल मे बदलेगी....
थोड़ा और साथ दोगे तो यकीनन...
तुम्हारा हाथ भी थामेगी...

तुम्हे कभी मरींन ड्राइव की सेर कराएगी...
तो कभी लोकल मे खीच ले जायेगी....

भीड़ के धक्के..
किसी पत्थर की ठोकर...
हर एक गली नुक्कड़ पर,
 तुम्हारे साथ बस यही होगी...

फकीर के कटोरे मे या किसी,
 स्कूली बच्चे के सपनो में...
किसी कपल की आंखो मे..
माँ की ममता में...

हर तरफ़...हर जगह,
सिर्फ़ मेरी कविता होंगी...
सुबह की ताज़गी से,
 शाम की रोशनाई तक...

तुम्हारे साथ जब घर लौटेगी....
तो तुम्हारी आंखों में कुछ वादे छोड़ जायेगी...
लौट के आने के वादे...

मैं कविता नही लिखता हूँ...
मैं दोस्त देता हूँ.... क्योंकि

"मेरी रूह तुम्हे कभी तन्हा नही होने देगी"

Dec 15, 2007

तेरा ख्याल......


किसी कागज़ के टुकडे में दबोच कर..
मरीन ड्राइव के पानी में फेंका हुआ तेरा ख्याल....
आज राजस्थान कि तपती लू में...
ठिठुरता हुआ मेरे सामने खडा हैं......

कमज़ोर पड़ गये ख्याली बदन को देखकर ऐसा लगता हैं....
जैसे इस बेचारे को बुरे वक़्त कि मार पडी हैं....
वरना सूरत से तो अब भी ठीक-ठाक हैं .....

थके ख्याल को... नीम कि छाँव में... आराम मिलने ही वाला था....
कि कमब्खत बडकी ने फाटक खोल दी....

शाम का वक़्त हो चला....
गौरी गाय के साथ तेरा ख्याल भी,
 वक़्त के खूंटे से बांध चुका था......


मरीन ड्राइव एक ऐसी जगह जहाँ चले जाओ तो शायद तुम्हे किसी कि ज़रूरत नहीं होगी.... बाहें फैलाये खड़ी सागर कि लहरें और तुम..... ऐसी हालत में अगर कोई सुहाना ख्याल आ जाए तो... बस उसी ख्याल को मेरी कविता के इस पात्र ने अपने गाँव तक ज़िंदा रखा.... एक ख्याली कविता हैं.. बस पढो...!!!

Dec 2, 2007

कभी-कभी


शहर की भीड़ से कौसो दूर..
याद हाथ पकड़ कर खींच लेती हैं..
जब भी लोकल की भीड़ देखता हूँ
तब गंगुराम के भेड़ों के टोले की याद आती हैं..

कटिंग चाय की सी ज़िन्दगी में..
मेरे गाँव का ख्याल भर ही....
शक्कर की सी मिठास घोल देता हैं..
मिट्टी  पानी..... चंदू काका की लड़की
पनघट और न जाने कितनी बातें....

ये बातें खयालो का तूफ़ान लाती हैं...
लेकिन रहती नहीं.....

दो हज़ार के भूकंप ने..
 मेरा गाँव तबाह किया.....
और चर्चगेट पहुचते,
मेरा ही ख्याल भी........

गाँव की तरह.....
कही खो गया... 

बुकमार्क


किताबों के कई वरक अब मुड़ चुके थे..
हम भी अब पच्चास पार कर चुके थे..

तन्हाई दिन भर बुकसेल्फ़ टटोलती...
यहीं कहीं पर थी,  एक वो किताब..

जिसका पन्ना तुमने मोड़ा था..
खुदको मेरे लिए रख छोड़ा था..

कांपते हाथ, थिरकते पाँव हरकत में आये..
ऐनक टेबल पर, चाय की प्याली....और एक मुस्कान..

फिर पलके बंद..... गहरी सांस..... और ख्याल जा पहुचा..
मरीन ड्राइव के किनारे,
 जहाँ तुम्हे.. रोज़ देखता था...
मुस्कुराते हुए... पास से दूर जाते हुए.....

सुबह की खुशबू में,
तुम्हारे पसीने की महक भी तो शामिल हुआ करती थी..



फिर लम्बी सांस और....... कदम बढ़ने लगे बूकसेल्फ़ की ओर..

बूढ़े हाथों में हर वो किताब थी..
जिनका पन्ना तुमने मोड़ा था...
दुनिया के लिए तुम ना सही..
लेकिन मेरे लिए..... खुद को रख छोड़ा था

"उन बुकमार्क की सलवटों पर"


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